भारतीय संस्कृति में अनेक प्रथाए, रीती-रिवाज चली आयी है | भाद्रपद महिने के कृष्णपक्ष के पंद्रह दिन, श्राद्धपक्ष अथवा महालय पक्ष कहते है | ये दिन जिन पितरो और पूर्वजों ने हमारे कल्याण के लिए कठोर परिश्रम किए, रक्त का पानी किया, उन सबका श्रद्धा से स्मरण करने के है | वे जिस भी देह में हो उन्हें दुःख न हो, सुख और शांति प्राप्त हो इसलिए तो पिंडदान और तर्पण किया जाता है |
श्राद्ध अर्थात ‘ श्रद्धा यत क्रियते तत ’ | श्रद्धा से जो अंजलि दी जाती है वह है श्राद्ध और तर्पण अर्थात तृप्त करना, संतुष्ट रहना | इसलिए श्राद्ध के दिनों में जो भी परिवार के सदस्य थे उन्हें जो पसंद था, वह खिलाया जाता है, ब्राह्मणों को बुलाया जाता है | इस रिती से गई हुई आत्माएं तृप्त रहे, उनकी आशीर्वाद की छाया हमारे उपर रहे इस मान्यता से कई कार्य किए जाते है | यह नश्वर शरीर पाँच तत्वों में विलीन हो जाता है | यह निसर्ग का नियम है परंतु आज भी उनके विचार, उनके कर्म हमारे मानसपटल पर है जिस से वह अमर बने है | ऐसे पितर और पूर्वजों का पूजन करने के यह दिन | लेकिन सिर्फ याद नहीं करना है लेकिन उनके प्रति भी कृतज्ञता के भाव हमारे मन में हो |
मानव जीवन कई ऋणों में बंधा हुआ है | यह श्राद्ध के दिन ऋणमुक्ती दिलाने वाले दिन है | जिन्हों ने हमे जन्म दिया, जिनकी छत्रछाया में हम पले-बढे, जिन्हों ने अपने स्वार्थ का त्याग कर हमारे लिए दिन-रात मेहनत करके हमारी सभी ख्वाहिशों को पूरा किया, अच्छे संस्कार डालने की मेहनत की | उन पितरों का हम पर बहुत ऋण है | हमारे द्वारा ऐसे कुछ कर्तव्य हो जिन्हे उन्हें संतुष्टी मिले यही सच्चे अर्थ से श्राद्ध है | श्राद्ध से श्रद्धा उत्पन्न नहीं है | परन्तु आज श्रद्धा ही ख़त्म हुई है | आज का मानव भावनाशून्य होता जा रहा है | कुछ बातें परंपरा से करते हुए हमने देखा है | इसलिए उसे कर रहे है | उसके पीछे का भाव ही समझते नहीं | कइयों को ये प्रथाए मजाक भी लगती है |
पश्चिमी संस्कृती का चष्मा पहने हुए लोगों का तर्क यह है ‘ यहाँ ब्राह्मणों को खिलाया हुआ पितरों को यदि पहुँचता है तो बॉम्बे में खाया हुआ दिल्ली में रहनेवालों को क्यू नहीं मिलता ? आज विज्ञान ने इतनी प्रगति की है कि भारत में बैंक में जमा किया हुआ धन अमेरीका में प्राप्त हो जाता है , विदेश में रहने वाले अपने स्नेही को हम यहाँ बैठे-बैठे देख सकते है, उन से बात कर सकते है तो क्या भक्ति भाव से, शुद्ध अंतकरण से और अनन्य श्रद्धा से किया हुआ श्राद्ध संकल्प शक्ति, मंत्र शक्ति से पितरों को तृप्त नहीं कर सकता ?
इस शरीर के अंदर की चेतना (आत्मा) भले वह कहाँ पर भी है लेकिन हमारे शुद्ध स्पंदन, हमारी भावनाए उन तक जरूर पहुँचती है| जो भी इन दिनों में विधीयाँ की जाती है उस में सिर्फ दिल की भावनाए भरने की जरूरत है ? सिर्फ करने मात्र नहीं करना है | क्यों कि हमारा रिश्ता सिर्फ दैहीक नही है लेकिन वह तो आत्मा से है| देह तो एक वस्त्र है, जिसे आत्मा धारण करती और छोड़ती है |
बचपन में जब श्राध्द के दिनों भोजन बनता था तो वो पहले घर के आंगन में रख कर देखते थे कि कौआ इसे छूता है या नहीं ? और अगर नही छूता तो समझते थे कि शायद पितर हमसे नाराज है | फिर मन ही मन उनसे माफ़ी मांगी जाती थी | या फिर उनके जो सब से प्रिय रहे है उनके ही हाथों से वह भोजन रखा जाता था | ये तो देखने में आता था कि प्रियजन के हाथों से रखे हुए भोजन का स्वीकार कौआ करता भी था | लेकिन ये सच है कि हमारी भावनाए आज भी उन आत्माओं तक पहुँचती है | संकल्पों का ये नियम है कि ‘ आप जो औरों के बारे में सोचेंगे वैसा ही और आपके बारे में सोचेंगे ’ | अब जो बीत गया सो बीत गया | बीते हुए पल लौटकर नही आ सकते | परंतु हम इस श्राद्ध के निमित्त गयी हुए आत्माओं के सुख, शांति, सन्तुष्टता की याचना जरूर करे |
आज हम जिनके साथ रहते है, उनके लिए तो रोज शुभभावनाए रखे क्यों कि हम सभी को एक दिन जाना ही है | जाने के बाद उनके नाम से करे ही लेकिन जो मेरे अंग संग रहते है उनकी संतुष्टी का आज ख्याल रखे | मरने के पश्च्यात उनकी पसंद की चीज बनाए उसके बदले आज जो उन्हें पसंद है वह उनको जरूर दे| क्यों कि हर कर्म का फल मिलता है – अच्छा हो या बुरा | इसलिए हमें ‘ न दुःख देना है न लेना है ’ | कोई भी बंधन मुझे खींचे ऐसे कर्म हम से न हो | इस बात का जरूर ध्यान रखे | नही तो रूप बदल बदलकर भी हम उन्ही आत्माओं से बार-बार मिलते रहेंगे |
इस श्राद्ध के निमित्त हम सर्व ऋणों से मुक्त होने की ईश्वर के पास याचना करे |